सोमवार, 22 नवंबर 2010

विफलता : शोध की मंज़िलें – लोकनायक जयप्रकाश नारायण

जीवन विफलताओं से भरा है,
सफलताएँ जब कभी आईं निकट,
दूर ठेला है उन्हें निज मार्ग से ।

तो क्या वह मूर्खता थी ?
नहीं ।

सफलता और विफलता की
परिभाषाएँ भिन्न हैं मेरी !

इतिहास से पूछो कि वर्षों पूर्व
बन नहीं सकता प्रधानमन्त्री क्या ?
किन्तु मुझ क्रान्ति-शोधक के लिए
कुछ अन्य ही पथ मान्य थे, उद्दिष्ट थे,
पथ त्याग के, सेवा के, निर्माण के,
पथ-संघर्ष के, सम्पूर्ण-क्रान्ति के ।

जग जिन्हें कहता विफलता
थीं शोध की वे मंज़िलें ।

मंजिलें वे अनगिनत हैं,
गन्तव्य भी अति दूर है,
रुकना नहीं मुझको कहीं
अवरुद्ध जितना मार्ग हो ।
निज कामना कुछ है नहीं
सब है समर्पित ईश को ।

तो, विफलताओं पर तुष्ट हूँ अपनी,
और यह विफल जीवन
शत–शत धन्य होगा,
यदि समानधर्मा प्रिय तरुणों का
कण्टकाकीर्ण मार्ग
यह कुछ सुगम बन जावे !     – लोकनायक जयप्रकाश नारायण

(९ अगस्त १९७५, चण्डीगढ़-कारावास में)


लोकनायक जयप्रकाश नारायण द्वारा लिखी गयी यह कविता आज लोगों को जरूर पढ़नी और समझनी चाहिए कि लोग जिसे विफलता कहते हैं वो किसी के लिए किस हद तक सफलता हो सकती है।
मैन आज यह जरूर मनाता हूँ कि लोग ७० के दशक के इस लोकनायक को भूलते जा रहे हैं पर इतना जरूर विश्वास के साथ कहूँगा कि अगर इस व्यक्ति के बारे में यदि कोई थोड़ा भी जान ले तो इनके व्यक्तित्व से अवश्य ही प्रभावित होगा।

दुष्यंत कुमार की गज़ल की एक पंक्ति भूल नहीं पाएंगे हम
"एक बूढा आदमी है मुल्क में या यों कहो,
इस अँधेरी कोठारी में एक रौशनदान है"



त्यागमूर्ति, नमामि त्वम् । 



*साभार: गूगल

1 टिप्पणी:

  1. लोकनायक, महामानव, त्यागमूर्ति क्या कहा जाय - आपको शत शत नमन.....

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