बुधवार, 10 नवंबर 2010

स्वप्न भी छल, जागरण भी! / निशा निमन्त्रण – हरिवंशराय बच्चन

भूत केवल जल्पना है,
औ’ भविष्यत कल्पना है,
वर्तमान लकीर भ्रम की! और है चौथी शरण भी!
स्वप्न भी छल, जागरण भी!

मनुज के अधिकार कैसे!
हम यहाँ लाचार ऐसे,
कर नहीं इनकार सकते, कर नहीं सकते वरण भी!
स्वप्न भी छल, जागरण भी!

जानता यह भी नहीं मन,
कौन मेरी थाम गर्दन,
है विवश करता कि कह दूँ, व्यर्थ जीवन भी, मरण भी!
स्वप्न भी छल, जागरण भी!        – (निशा निमन्त्रण)


*साभार: कविताकोश

1 टिप्पणी:

  1. है विवश करता कि कह दूँ, व्यर्थ जीवन भी, मरण भी!

    बहुत ही सुन्‍दर शब्‍द ...आपका बहुत-बहुत आभार ...बच्‍चन जी की इस रचना
    को

    प्रस्‍तु‍त करने का ....।

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