रविवार, 27 फ़रवरी 2011

हमारा देश – 'अज्ञेय'

इन्हीं तृण-फूस-छप्पर से
ढंके ढुलमुल गँवारू
झोंपड़ों में ही हमारा देश बसता है


इन्हीं के ढोल-मादल-बाँसुरी के
उमगते सुर में
हमारी साधना का रस बरसता है
इन्हीं के मर्म को अनजान
शहरों की ढँकी लोलुप
विषैली वासना का साँप डँसता है


इन्हीं में लहरती अल्हड़
अयानी संस्कृति की दुर्दशा पर
सभ्यता का भूत हँसता है।      – सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन 'अज्ञेय'

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

भावतारंगिनी में ढूँढें

हाल के पोस्ट

पंकज-पत्र पर पंकज की कुछ कविताएँ

पंकज के कुछ पंकिल शब्द