राष्ट्रकवि श्री रामधारी सिंह 'दिनकर' के जन्म दिवस के शुभ अवसर पर उनके द्वारा रचित 'द्वन्दगीत' के कुछ छंद आपके समक्ष रखना चाहूँगा ।
ये द्वन्दयुद्ध हम सभी मन में होता है । जैसे कुछ विचार प्रेरित करते युद्धभूमि में कूदने को, कुछ सचेत करते हैं और भयक्रांत करते हैं, कुछ विचार प्रेम में समर्पण की राह दिखाते हैं वहीँ कुछ विचार विचारने करने को कहते हैं। यह पंक्ति "जिनको मस्तक का मोह नहीं, उनकी गिनती नादानों में" बहुतों को अच्छी लगी हों क्योंकि यही सत्य है, यथार्थ है , पर नहीं भी है..क्योंकि यह नहीं होना चाहिए। पर ऐसा हो रहा है "जिनको मस्तक का मोह नहीं, उनकी गिनती नादानों में" ही होती है ...प्रस्तुत हैं कुछ छंद जिनका मैं आप लोगों के साथ पुनर्पाठ करना चाहूँगा :-
दे रहे सत्य की जाँच आखिरी दमतक रेगिस्तानों में।
ज्ञानी वह जो हर कदम धरे बचकर तप की चिनगारी से,
जिनको मस्तक का मोह नहीं, उनकी गिनती नादानों में।
अब उसी द्वन्दयुद्ध की कुछ प्रेरणात्मक पंक्तियों को देखिये:
पी ले विष का भी घूँट बहक, तब मजा सुरा पीने का है,
तनकर बिजली का वार सहे, यह गर्व नये सीने का है।
सिर की कीमत का भान हुआ, तब त्याग कहाँ? बलिदान कहाँ?
गरदन इज्जत पर दिये फिरो, तब मजा यहाँ जीने का है।
और उसी कलम की कुछ निश्चिन्त पंक्तियाँ :
तू जीवन का कंठ, भंग इसका कोई उत्साह न कर,
रोक नहीं आवेग प्राण के,सँभल-सँभल कर आह न कर।
उठने दे हुंकार हृदय से,जैसे वह उठना चाहे;किसका,
कहाँ वक्ष फटता है,तू इसकी परवाह न कर।
उसी "द्वन्दगीत" कि कुछ और पंक्तियाँ:
दिये नयन में अश्रु, हॄदय में भला किया जो प्यार दिया,
मुझमें मुझे मग्न करने को स्वप्नों का संसार दिया।
सब-कुछ दिया मूक प्राणों की वंशी में वाणी देकर,
पर क्यों हाय, तृषा दी,उर में भीषण हाहाकार दिया?
विभा, विभा, ओ विभा हमें दे, किरण! सूर्य! दे उजियाली।
आह! युगों से घेर रही मानव-शिशु को रजनी काली।
प्रभो! रिक्त यदि कोष विभा का तो फिर इतना ही कर दे;
दे जगती को फूँक, तनिक झिलमिला उठे यह अँधियाली।
और उसी रचना में दिनकर जी कवि के बारे में कहते हैं:
मेरे उर की कसक हाय,तेरे मन का आनन्द हुई।
इन आँखों की अश्रुधार ही तेरे हित मकरन्द हुई।
तू कहता ’कवि’ मुझे, किन्तु,आहत मन यह कैसे माने?
इतना ही है ज्ञात कि मेरी व्यथा उमड़कर छन्द हुई।
अब देखिये कैसा मीठा छंद है ये :
दो अधरों के बीच खड़ी थी भय की एक तिमिर-रेखा,
आज ओस के दिव्य कणों में धुल उसको मिटते देखा।
जाग, प्रिये! निशि गई, चूमती पलक उतरकर प्रात-विभा,
जाग,लिखें चुम्बन से हम जीवन का प्रथम मधुर लेखा।
छंद यह भी उसी द्वन्दगीत का :
जीवन ही कल मृत्यु बनेगा, और मृत्यु ही नव-जीवन,
जीवन-मृत्यु-बीच तब क्यों द्वन्द्वों का यह उत्थान-पतन?
ज्योति-बिन्दु चिर नित्य अरे, तोधूल बनूँ या फूल बनूँ,
जीवन दे मुस्कान जिसे, क्यों उसे कहो दे अश्रु मरण?
मैं भी हँसूँ फूल-सा खिलकर? शिशु अबोध हो लूँ कैसे?
पीकर इतनी व्यथा, कहो, तुतली वाणी बोलूँ कैसे?
जी करता है, मत्त वायु बन फिरूँ; कुंज में नृत्य करूँ,
पर, हूँ विवश हाय, पंकज का हिमकण हूँ, डोलूँ कैसे?
औ’ रोना भी व्यर्थ, मृदुल जब हुआ व्यथा का भार नहीं,
आँसू पा बढ़ता जाता है, घटता पारावार नहीं;
जो कुछ मिले भोग लेना है, फूल हों कि हों शूल सखे!
पश्चाताप यही कि नियति पर हमें स्वल्प अधिकार नहीं।
पत्थर ही पिघला न, कहो करुणा की रही कहानी क्या
टुकड़े दिल के हुए नहीं, तब बहा दृगों से पानी क्या?
मस्ती क्या जिसको पाकर फिर दुनिया की भी याद रही?
डरने लगी मरण से तो फिर चढ़ती हुई जवानी क्या?
ठोकर मार फोड़ दे उसको जिस बरतन में छेद रहे,
वह लंका जल जाय जहाँ भाई - भाई में भेद रहे।
गजनी तोड़े सोमनाथ को, काबे को दें फूँक शिवा,
जले कुराँ अरबी रेतों में, सागर जा फिर वेद रहे।
छोड़े पोथी-पत्र, मिला जब अनुभव में आह्लाद मुझे,
फूलों की पत्ती पर अंकित एक दिव्य संवाद मुझे;
दहन धर्म मानव का पाया, अतः, दुःख भयहीन हुआ;
अब तो दह्यमान जीवन में भी मिलता कुछ स्वाद मुझे।
पहली सीख यही जीवन की,अपने को आबाद करो,
बस न सके दिल की बस्ती,तो आग लगा बरबाद करो।
खिल पायें, तो कुसुम खिलाओ,नहीं? करो पतझाड़ इसे,
या तो बाँधो हृदय फूल से, याकि इसे आजाद करो।
पूजा का यह कनक - दीप खँडहर में आन जलाया क्यों?
रेगिस्तान हृदय था मेरा, पाटल - कुसुम खिलाया क्यों?
मैं अन्तिम सुख खोज रहा था तप्त बालुओं में गिरकर।
बुला रहा था सर्वनाश को यह पीयूष पिलाया क्यों?
पी चुके गरल का घूँट तीव्र, हम स्वाद जीस्त का जान चुके,
तुम दुःख, शोक बन-बन आये, हम बार-बार पहचान चुके।
खेलो नूतन कुछ खेल, देव! दो चोट नई, कुछ दर्द नया,
यह व्यथा विरस निःस्वाद हुई, हम सार भाग कर पान चुके।
बाँसुरी विफल, यदि कूक-कूक मरघट में जीवन ला न सकी,
सूखे तरु को पनपा न सकी,मुर्दों को छेड़ जगा न सकी।
यौवन की वह मस्ती कैसी जिसको अपना ही मोह सदा?
जो मौत देख ललचा न सकी, दुनिया में आग लगा न सकी।
धरती से व्याकुल आह उठी, मैं दाह भूमि का सह न सका,
दिल पिघल-पिघल उमड़ा लेकिन, आँसू बन-बनकर बह न सका।
है सोच मुझे दिन-रात यही, क्या प्रभु को मुख दिखलाऊँगा?
जो कुछ कहने मैं आया था, वह भेद किसी से कह न सका।
चाँदनी बनाई, धूप रची, भूतल पर व्योम विशाल रचा,
कहते हैं, ऊपर स्वर्ग कहीं, नीचे कोई पाताल रचा।
दिल - जले देहियों को केवल लीला कहकर सन्तोष नहीं;
ओ रचनेवाले! बता, हाय! आखिर क्यों यह जंजाल रचा?
सम्पुटित कोष को चीर, बीज-कण को किसने निर्वास दिया
किसको न रुचा निर्वाण? मिटा किसने तुरीय का वास दिया?
चिर-तृषावन्त कर दूर किया जीवन का देकर शाप हमें,
जिसका न अन्त वह पन्थ, लक्ष्य-सीमा-विहीन आकाश दिया।
जो सृजन असत्, तो पूण्य-पाप का श्वेत - नील बन्धन क्यों है?
स्वप्नों के मिथ्या - तन्तु - बीच आबद्ध सत्य जीवन क्यों है?
हम स्वयं नित्य, निर्लिप्त अरे, तो क्यों शुभ का उपदेश हमें?
किस चिन्त्य रूप का अन्वेषण? यह आराधन-पूजन क्यों है?
हर घड़ी प्यास, हर रोज जलन, मिट्टी में थी यह आग कहाँ?
हमसे पहले था दुखी कौन? था अमिट व्यथा का राग कहाँ?
लो जन्म; खोजते मरो विफल; फिर जन्म; हाय, क्या लाचारी
!हम दौड़ रहे जिस ओर सतत, वह अव्यय अमिय-तड़ाग कहाँ?
और अब देखिये श्रृष्टि को क्या कह गए दिनकर जी:
गत हुए अमित कल्पान्त, सृष्टि पर, हुई सभी आबाद नहीं,
दिन से न दाह का लोप हुआ, निशि ने छोड़ा अवसाद नहीं।
बरसी न आज तक वृष्टि जिसे पीकर मानव की प्यास बुझे,
हम भली भाँति यह जान चुके तेरी दुनिया में स्वाद नहीं।
हम ज्यों-ज्यों आगे बढ़े, दृष्टि-पथ से छिपता आलोक गया,
सीखा ज्यों-ज्यों नव ज्ञान, हमें मिलता त्यों-त्यों नव शोक गया।
हाँ, जिसे प्रेम हम कहते हैं, उसका भी मोल पड़ा देना,
जब मिली संगिनी, अदन गया, कर से विरागमय लोक गया।
भू पर उतरे जिस रोज, धरी पहिले से ही जंजीर मिली,
परिचय न द्वन्द्व से था, लेकिन, धरती पर संचित पीर मिली।
जब हार दुखों से भाग चले, तब तक सत्पथ का लोप हुआ,
जिसपर भूले सौ लोग गये, सम्मुख वह भ्रान्त लकीर मिली।
तिल-तिलकर हम जल चुके, विरह की तीव्र आँच कुछ मन्द करो,
सहने की अब सामर्थ्य नहीं, लीला - प्रसार यह बन्द करो।
चित्रित भ्रम-जाल समेट धरो, हम खेल खेलते हार चुके,
निर्वाषित करो प्रदीप, शून्य में एक तुम्हीं आनन्द करो। – रामधारी सिंह 'दिनकर'
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें